
सम्पूर्ण श्रीमद भागवत गीता – Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi
।। अथ दशमोऽध्यायः ।। अध्याय 10: श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
बल, सौन्दर्य, ऐश्वर्य या उत्कृष्टता प्रदर्शित करने वाली समस्त अद्भुत घटनाएँ, चाहे वे इस लोक में हों या आध्यात्मिक जगत में, कृष्ण की दैवी शक्तियों एवं ऐश्वर्यों की आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं। समस्त कारणों के कारण-स्वरूप तथा सर्वस्वरूप कृष्ण समस्त जीवों के परम पूजनीय हैं।
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वच: । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ १ ॥
अनुवाद : श्रीभगवान् ने कहा—हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो। चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अत: मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा।
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय: । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: ॥ २ ॥
अनुवाद : न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारणस्वरूप (उद्गम) हूँ।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असम्मूढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद : जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम: । सु दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ ४ ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश: । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा: ॥ ५ ॥
अनुवाद : बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश—जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं।
महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा । मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा: प्रजा: ॥ ६ ॥
अनुवाद : सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं।
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत: । सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय: ॥ ७ ॥
अनुवाद : जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥ ८ ॥
अनुवाद : मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥
अनुवाद : मेरे शुद्धभक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १० ॥
अनुवाद : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ ११ ॥
अनुवाद : मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२ ॥
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा । असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥
अनुवाद : अर्जुन ने कहा—आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव । न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा: ॥ १४ ॥
अनुवाद : हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ १५ ॥
अनुवाद : हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु! निस्सन्देह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगाशक्ति से जानने वाले हैं।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतय: । याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १६ ॥
अनुवाद : कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ १७ ॥
अनुवाद : हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूँ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय?
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । भूय: कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥
अनुवाद : हे जनार्दन! आप पुन: विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतय: । प्राधान्यत: कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १९ ॥
अनुवाद : श्रीभगवान् ने कहा—हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्वर्य असीम है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ २० ॥
अनुवाद : हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ। मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् । मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ २१ ॥
अनुवाद : मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ २२ ॥
अनुवाद : मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा समस्त जीवों में जीवनीशक्ति (चेतना) हूँ।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् । वसूनां पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥
अनुवाद : मैं समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पत्ति का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर: ॥ २४ ॥
अनुवाद : हे अर्जुन! मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित बृहस्पति जानो। मैं ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय: ॥ २५ ॥
अनुवाद : मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ।
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद: । गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि: ॥ २६ ॥
अनुवाद : मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ। मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् । ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ २७ ॥
अनुवाद : घोड़ों में मुझे उच्चै:श्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था। गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् । प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: सर्पाणामस्मि वासुकि: ॥ २८ ॥
अनुवाद : मैं हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, सन्तति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् । पितॄणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम् ॥ २९ ॥
अनुवाद : अनेक फणों वाले नागों में मैं अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ। मैं पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम् । मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ ३० ॥
अनुवाद : दैत्यों में मैं भक्तराज प्रह्लाद हूँ, दमन करने वालों में काल हूँ, पशुओं में सिंह हूँ, तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ।
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् । झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ ३१ ॥
अनुवाद : समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद : हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ। मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: सामासिकस्य च । अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख: ॥ ३३ ॥
अनुवाद : अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मैं शाश्वत काल भी हूँ और स्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ।
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् । कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा ॥ ३४ ॥
अनुवाद : मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, धृति तथा क्षमा हूँ।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ॥ ३५ ॥
अनुवाद : मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ। समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् । जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद : मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ। मैं विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय: । मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि: ॥ ३७ ॥
अनुवाद : मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ। मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद : अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद : यही नहीं, हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ। ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप । एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ ४० ॥
अनुवाद : हे परन्तप! मेरी दैवी विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने तुमसे जो कुछ कहा, वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद : तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद : किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ।